शिक्षक नहीं, मार्ग दर्शक बनें! | Be the guide, not the teacher!

Vimla Sharma
5 min readMay 4, 2023
तीन लोक, नवखण्‍ड में, गुरू से बडा न को। करता करे न कर सके, गुरू करे सो होये।। In the three worlds, Navakhand, no one is greater than the guru. If you can’t do it, Guru should do it.

नई शिक्षा के लिए ओशो एक नए तरह के शिक्षक की विचारधारा देते हैं- ‘नो टीचर’। एक ऐसा शिक्षक, जो शिक्षक से अधिक एक मार्ग दर्शक हो। वे कहते हैं- अगर एक विद्यार्थी गणित में कमजोर है, तो शिक्षक को यह जोर देने की जरूरत नहीं है कि वह गण्ति में मजबूत हो, तभी वह स्कूल में रह सकता है नहीं, कोई जरूरत नहीं है। गणित कोई ऐसा विषय नहीं है कि उसके बिना जिंदगी नहीं हो सकती।

शिक्षक, शिक्षा व्यवस्था के सुधार के तल पर भी लागू होते हैं। इस नई शिक्षा के लिए ओशो एक नए तरह के शिक्षक की विचारधारा देते हैं- ‘नो टीचर’। एक ऐसा शिक्षक, जो शिक्षक से अधिक एक मार्ग दर्शक हो। वे कहते हैं- अगर एक विद्यार्थी गणित में कमजोर है, तो शिक्षक को यह जोर देने की जरूरत नहीं है कि वह गण्ति में मजबूत हो, तभी वह स्कूल में रह सकता है नहीं, कोई जरूरत नहीं है। गणित कोई ऐसा विषय नहीं है कि उसके बिना जिंदगी नहीं हो सकती।

हमारे जोर देने से भी कुछ बहुत फर्क पड़ने वाला नहीं है। सिर्फ एक फर्क पड़ेगा कि वह व्यक्ति एक इंफीरिआरिटी काम्प्लैक्स लेकर, एक हीन भावना का भाव लेकर दुनिया में जाएगा कि मैं कमजोर हूं गणित में, और यह भाव जिंदगी में दूसरे तरफ भी हराने वाला भाव बन जाएगा।

बार-बार एक व्‍यक्ति को उसकी कमी का अहसास कराना, उसके आत्‍मविश्‍वास को ठेस पहुंचाना है। गणित में होशियार न होना, कोई कमजोरी नहीं है। ईश्‍वर ने अपनी प्रत्‍येक कृति को यूनिक बनाया है। जिसे हम पहचान नहीं पाते हैं। जिसे हम इनट्रस्‍ट कहते हैं।

इसलिए जो व्यक्ति हो सकता है- तो मेरी दृष्टि में ऐसा मालूम पड़ता है, जो मैं अंतिम बार करना चाहता हूं वह यह कि सबसे पहला काम तो यह कि प्राथमिक स्कूल जहां हम पहली दफा बच्चों से साक्षात्कार करते हैं, जहां छोटे बच्चे पहले दफे पुरानी पीढ़ी के आमने-सामने खड़े होते हैं, जहां एन्काउंटर शुरू होता है, वहां श्रेष्ठतम शिक्षक होने चाहिए।

ओशो कहते हैं-

अभी हमने वहां निष्कृष्टतम शिक्षक बिठा रखे हैं जिनको हम यूनिवर्सिटीज में बिठाए हुए हैं उनको सबको प्राइमरी स्कूल में होना चाहिए। क्योंकि वहां पहला मुकाबला है, पुरानी पीढ़ी का नयी पीढ़ी से। वहां पुरानी पीढ़ी को अपना श्रेष्ठतम व्यक्ति खड़ा करना चाहिए क्योंकि वह अनुभव सदा के लिए कीमती होगा। लेकिन हमारा ऐसा ख्याल है, प्राथमिक शिक्षक तो कोई होना न चाहे। यूनिवर्सिटीज में भी जो शिक्षक जरा दो चार साल आगे हुआ कि वह कहता है अंडर ग्रेजुएट नहीं पढ़ायेंगे, तो पोस्ट ग्रेजुएट पढ़ायेंगे। अंडर ग्रेजुएट पढ़ाने में बेइज्जती है । सच्चाई यह है कि प्राथमिक स्कूल से ज्यादा कठिन और कोई बात नहीं है। बाद में सब सरल होता चला जाता है। असली सवाल वहां है जहां बिल्कुल नयी पीढ़ी, कच्ची पीढ़ी पुरानी पीढ़ी के सामने खड़ी होती है, वहां श्रेष्ठतम होने चाहिए।

देश में हमें सारे मनोवैज्ञानिकों को प्राथमिक स्कूल में उलझा देना चाहिए कि वहां खोज लें कि व्यक्ति हो क्या सकता है। वे चार वर्ष दो काम के लिए होने चाहिए, एक तो यह कि जिसको बहुत प्राथमिक ज्ञान कहें, जो जिंदगी के लिए सबको जरूरी होगा, वह दे दें। दूसरी, उससे भी कीमती बात कि हम चार वर्ष में यह खोज लें कि यह व्यक्ति हो क्या सकता है, इसकी संभावना क्या है। ताकि हम उसे मार्ग दे सकें।

प्राथमिक शिक्षा पर ध्यान दिया जाना जरूरी है

मेरी अपनी समझ यह है कि प्राथमिक शिक्षा पर सबसे पहले ध्यान दिया जाना जरूरी है क्योंकि प्राथमिक शिक्षक सबसे महत्वपूर्ण शिक्षक है और वहां हमें श्रेष्ठतम लोगों को खड़ा कर देना चाहिए। इधर मैं ऐसा सोचता हूं तभी संभव हो सकेगा जबकि हम प्राथमिक स्कूल में कोई पढ़ाता है उस हिसाब में उसकी तनख्वाह तय न करे बल्कि तनख्वाह उसे इस हिसाब से तय करें कि वह आदमी क्या है? वह चाहे यूनिवर्सिटी पढ़ाये और चाहे पहली कक्षा में पढ़ाये और श्रेष्ठतम को हम नीचे ले आयें। असल में बुनियाद के पास श्रेष्ठ तक होने चाहिए, शिखर तो संभल सकता है।

-ओशो

यदि कहा जाये तो एक शिक्षक समाज का शिल्‍पकार होता है। गलत नहीं हैै शिक्षक का स्‍थान, ईश्‍वर से भी पहले आता है, शिक्षक ही समाज की सीमाएं तय करता है। यदि बच्‍चों में संस्‍कार अच्‍छे डाले गये हैं तो समाज की कोई भी बुराई उस पर हावी नहीं हो सकती। यदि हम इतिहास देखें तो गुलामी के समय में इतने महापुरूष, स्‍वामी विवेकानंद, राजाराम मोहन राय, दयानंद सरस्‍वती आदि हुए, जिनके बारे में बच्‍चों को बताया ही नहीं जाता। पढाया ही नहीं जाता। न ही पैरेंटस देखने और जानने की कोशिश करते हैं कि हमारे बच्‍चों को क्‍या पढाया जा रहा है। सभी बच्‍चों को डॉक्‍टर, इंजीनियर बनाना चाहते हैं, कोई जानना ही नहीं चाहता कि बच्‍चा क्‍या चाहता है?

बच्‍चों का जीवन एक खाली मैदान में बहते पानी सा हो गया है। उन्‍हें अपने धर्म संस्‍कृति के बारे में कुछ पता ही नहीं। वह भारतीय संस्‍कृति के अनुसार चलने में शर्म महसूस करते हैं। पश्चिमी कल्‍चर उन्हें अधिक आकर्षित करता है। देश के लोंगों के नजरिये को बदलकर, समाज सुधार के आन्‍दोलन चलायेंं। जिन्‍होंने हमें हमारी संस्‍कृति और संस्‍कारों से परिचय कराया उनके जीवन चरित्र के बच्‍चोंं का परिचय करायें। आज वास्‍तव में शिक्षा नीति को बदलने की आवश्‍यकता है। तकनीकि आधार पर जो शिक्षा दी जा रही है वह ठीक है, लेकिन जिस स्‍तर से समाज दूषित हो रहा है, नैतिकता का स्‍तर दिनों-दिन गिरता जा रहा है। समाज में कुछ जीवन मूल्‍य तय होने चाहिए।

बच्‍चों को आत्‍मनिर्भर बनाना चाहिए। विदयार्थी जीवन, जीवन की नींव होता है। नींव जितनी मजबूत और गहरी होगी, इमारत उतनी ही मजबूत होगी। आज शिक्षक बच्‍चों को डांट नहीं सकते, यदि ऐसा करते भी हैं तो अभिभावक शिकायत लेकर स्‍कूल पहुंच जाते हैं। अभिभावक स्‍वयं शिक्षक का आदर नहीं करते, बच्‍चों के सामने ही उनका अनादर करने से नहीं चूकते। इस व्‍यवहार के कारण ही यह व्‍यवस्‍था एक व्‍यवसाय बनती जा रही है।

शिक्षक भी बच्‍चों के सामने पेरेंटस को उचित आदर नहीं दे पाते, दोनों एक दूसरे को टोपी पहनाने की कोशिश करते हैं। इसमें बच्‍चाें पर बुरा प्रभाव पडता है। मेरी अपनी निजी राय है कि पैरेंटस मीटिंग, शिक्षक और पैंरेंटस के बीच मेें होनी चाहिए, इसमें बच्‍चों को शामिल नहीं करना चाहिए।

सर्वप्रथम हमारे लिए यह जानना आवश्‍यक है कि बच्‍चा क्‍या चाहता है? शिक्षक और पैरेंटस मार्गदर्शक बनें, यही काफी है। बच्‍चों को अपने जीवन मूल्‍य स्‍वयं तय करने दीजिए। बच्‍चों को संस्‍कार अच्‍छे दीजिए, उनको समय दीजिए, उनसे बात करें, जब सब कुछ सकारात्‍मक होगा, तो रिजल्‍ट भी सकारात्‍मक ही निकलेगा। हम जैसा बीज डालेंगे, फसल भी फिर वैसी ही होगी।

फर्ज निभायें, अधिकार न जतायेंं।

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